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LOVE को तुम समझो!

Description

हम देख रहे हैं कौन से बच्चे पढ़ लिख कर कम्पटीशन क्रास कर विभिन्न पदों पर सुशोभित हो जीवन में आगे बढ़ रहे हैं? वे अवश्य वे हैं जो अपने जीवन में रिजर्व हो सिर्फ अपने मकसद को मेहनत में लगे हैं। हम तो कहेंगे कि 98 प्रतिशत विद्यार्थी जीवन भटकाव में है। अब भी वास्तव में जो ईमानदारी से विद्यार्थी है उसके लिए फुर्सत ही नहीं दुनिया के जंजालों से।ऐसे में भी हम देख रहे हैं कि स्कूल में हो या अपने मोहल्ले में?वे इधर उधर काफी समय यों ही बीता देते हैं। प्रेम या LOVE को लेकर तो वो ही नहीं पूरा का पूरा तथाकथित समाज शायद भ्रम में है।
एक स्तर पर अब भी फिजिकल डिस्टेंसिंग या छुआ छूत की जरूरत है।हमें व अपने बच्चों, परिवार आदि को कैसे लोगों के बीच ,किन लोगों जे साथ उठने बैठने आदि की स्वतंत्रता होनी चाहिए ? हमें पता होना चाहिए। हम तो कुछ परिवारों यहां तक कि माता पिता की उपस्थिति में बच्चों के सामने ऐसी चर्चा, शब्दावली को सुनते हैं जिस पर हम कभी सोंच भी नहीं सकते।स्थानीय स्तर पर जो गाने, वीडियो आदि का प्रचलन शुरू है वह व्यक्ति की धार्मिकता, ईश्वरता का हिस्सा कदापि नहीं हो सकता।यदि ऐसा है तो ऐसे व्यक्ति व परिवार की धर्म, ईश्वर,व्रत,उपासना आदि के नाम पर की जाने वाली हरकतें हमारे लिए ढोंग-पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। हम तो शिक्षितों यहाँ तक कि शिक्षकों के बातचीत का जो स्तर देखते है, वह भी शिक्षकत्व की शोभा नहीं होता, ज्ञान की शोभा नहीं होता लेकिन हम उन्हें समाज, तंत्र, ठेकेदारों आदि के बीच में प्रतिष्ठित होते देखते हैं। हमें विद्यार्थी भी नजर नहीं आ रहा है सिर्फ दो प्रतिशत के अलावा। हमारी संस्कृति का आधार हमारी नजर में विद्यार्थी जीवन था जो कि ब्रह्मचर्य आश्रम था । आज उसकी दशा देख कर पता चल सकता है कि देश व देश के अंदुरुनी दशा, समाज का भविष्य क्या होने वाला है।  व्यक्तियों के आराध्य व ग्रंथ वास्तव में क्या उनके लिए सम्माननीय है भी?आराध्यों व ग्रन्थों के सन्देशों के आधार पर बात कहने वाला ही उपेक्षित है या मजाक का पात्र है।

‘ LOVE को तुम समझो!’ – शीर्षक हो सकता है कि सीमित दायरे में हो लेकिन  समाज में हर कोई LOVE पर केंद्रित है लेकिन यह प्रयोग में सिर्फ लोभ लालच, विपरीत लिंगाकर्षण, देह आकर्षण, धन दौलत, बदले के भाव आदि ही कार्य कर रहा होता है। हमने तो यही महसूस किया है कि LOVE तो एक अंदुरुनी दशा है जिस के कारण किया जाने वाला व्यवहार, आचरण, कर्म आदि का कोई कारण होता ही नहीं, वह सिर्फ होता।

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