Description
लेखन एक नशा है और यह नशा यदि “दिल की ज़मीं पर” ग़ज़ल के कहन को लेकर हो तो यक़ीन मानिएगा उतरता ही नहीं है। यह मैं अपने निजी अनुभव से कह रही हूँ। कहाँ तो मैं ग़ज़ल कहना सीख रही थी और कहाँ अब हर वक़्त ग़ज़ल ही कहती रहती हूँ। मुझे लगता है जब हम किसी भी चीज़ को सीखने के लिए दिलो-दिमाग़ से लालायित और समर्पित होते हैं तो वह भी हमारे ख़ून में रमने लगती है। मेरे लिए ग़ज़ल पहले सुनने और पढ़ने का ही विषय थी लेकिन ग़ज़ल से मुहब्बत ने मुझे इसके ‘अरूज़ से भी वाक़िफ़ करा दिया। इसीलिए पाठकों की सहूलियत हेतु मैंने शब्दों के मआनी और बहर भी दी है ताकि मेरी ही तरह अगर कोई ग़ज़ल कहना सीखना चाहता है तो आसानी रहे।
कविताओं, कहानियों, लघु-कथाओं के बाद ग़ज़ल तक पहुँचा साहित्य का यह ख़ूबसूरत सफ़र बहुत ही सुकून देने वाला है। इसी दौरान मेरा हाइकु-संग्रह “पीले गुलाब” और गीत-संग्रह “ऐसे गीत सुनाने होंगे” भी प्रकाशित हुए। हर विधा का अपना अलग रंग होता है, अलग महक होती है। बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि अगर गुलाब का फूल सबसे सुंदर होता है तो गेंदा, गुलदाउदी, चंपा, चमेली, रजनीगंधा इन सब की कोई अहमियत नहीं। सभी की अपनी-अपनी रंगत है, महक है, बुनावट है। इसीलिए मुझे साहित्य की हर विधा पसंद है।
“मैं मुहब्बत की ग़ज़ल हूँ”, “रफ़्ता-रफ़्ता उतरा चाँद” और “गुल-ए-रुख़सार का मौसम” के बाद यह मेरा चौथा ग़ज़ल-संग्रह है। माँ सरस्वती का आशीर्वाद यूँ ही मुझे मिलता रहे और मैं साहित्य की सेवा करती रहूँ यही मेरी दिली तमन्ना है। ग़ज़ल कहने की शुरुआत कैसे हुई इस बाबत मैंने अपने पूर्व प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रहों में सब कुछ विस्तार पूर्वक कह दिया है इसलिए यहाँ उसे पुन: लिखने से बचूंगी। सेवानिवृत्ति के बाद से मेरे लेखन में बहुत तेजी आई है क्योंकि अब सारा वक़्त साहित्य-साधना में ही बीतता है। समय गुज़र रहा है, गुज़रता रहेगा पर मेरे लेखन का सफ़र यूँ ही अनवरत चलता रहेगा क्योंकि…
“समय अपनी मर्ज़ी का मालिक रहा है
भले काम में क्या इजाज़त किसी से”
कई बार जीवन में कुछ उतार-चढ़ाव आते हैं, कठिनाइयाँ आती हैं और साहित्य साधना में विघ्न पड़ने लग जाता है। तब मन के किसी कोने से अक्सर यही सदा सुनने में आती है कि…
“ज़र्द पत्तों को प्यार कौन करे
सबकी चाहत है बस हरा पत्ता”
परंतु यह सोचकर मैं कलम रख नहीं देती बल्कि एक नए जज़्बे के साथ यह सोचकर फिर से उठा लेती हूँ कि…
“पतझड़ों में झरे अगर पत्ते
आज फिर से उगा नया पत्ता”
मैं माँ सरस्वती से और परमपिता परमात्मा से दुआ करती हूँ कि मेरे “दिल की ज़मीं पर” ग़ज़लों के फूल-पत्ते अपनी पूरी महक और हरीतिमा के साथ यूँ ही उगते रहें, खिलते रहें, महकते रहें।
इस ग़ज़ल-संग्रह का कवर पेज़ भी प्रिय योगिता चौधरी ने बनाया है जो कि बहुत ही ख़ूबसूरत है। Illustrator होने के नाते योगिता ने मेरी बहुत सी किताबों के कवर पेज़ बनाए हैं। हाँ, जब भी कोई ग़ज़ल कहती हूँ तो सबसे पहले या तो कुमार शर्मा ‘अनिल’ को सुनाती हूँ या फिर नेहा को। नेहा से अक्सर सलाह भी मांगती रहती हूँ कि ठीक है या नहीं? दोनों बेटों स्वप्निल और अनुभव हमेशा ही मेरी हौसला-अफ़ज़ाई करते रहते हैं और यह बात मुझे बहुत ऊर्जा देती है। मुझे हर प्रकार का सहयोग देने के लिए मेरे बेटों प्रिय स्वप्निल, अनुभव व बहुओं प्रिय नेहा और योगिता को ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद।
मैं सबसे ज़्यादा आभार व्यक्त करती हूँ कुमार शर्मा ‘अनिल’ का जो एक कहानीकार, व्यंग्यकार, नाटककार और कवि होने के साथ-साथ मेरे हमसफ़र भी हैं। उनके सहयोग के बिना मेरी कोई भी साहित्यिक-यात्रा कभी पूर्ण नहीं होती। हमेशा की ही तरह इस ग़ज़ल-संग्रह की भी बहुत ही ख़ूबसूरत प्रस्तावना लिखकर उन्होंने इस संग्रह को सुशोभित किया है। दरअसल शुक्रिया शब्द महज़ औपचारिकता भर है। लिखने और कहने से ज़्यादा मैं इसे महसूस करती हूँ।
इसके अलावा मैं आदरणीय भाई साहब निर्मल कुमार चौधरी जी, आई. एफ. एस. और प्रिय सखी लतिका चौधरी जी जोकि हमेशा मुझे प्रोत्साहन देते रहते हैं, का शुक्रिया अदा करती हूँ।
उन सभी सखी-सहेलियों विशेषकर मेरी बचपन की सखी उर्मिला चाँदला जिनके साथ नंगल में मैंने बहुत ख़ूबसूरत पल गुज़ारे का शुक्रिया और उन सभी साहिबान का भी शुक्रिया जो मुझे और बेहतर लिखने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हमेशा प्रोत्साहित करते रहते हैं।
यह सच है कि ग़ज़ल आप तभी कह सकते हैं जब कोई भी भाव आप दिल की गहराइयों से महसूस करते हैं। इस संग्रह में विभिन्न अहसासात को उकेरती हुईं कुल 125 ग़ज़लें हैं। ग़ज़लों की ज़मीन चाहे कोई भी रही हो पर मैंने अपनी सारी ग़ज़लें “दिल की ज़मीं पर” ही लिखी हैं जो कि बहुत नर्म और उर्वर है। आशा करती हूँ कि मेरा यह ग़ज़ल-संग्रह पाठकों के दिल की ज़मीन का भी हिस्सा बनेगा। पाठकों की प्रतिक्रियाओं का हमेशा की तरह ही इंतज़ार रहेगा। अंत में यही कहूंगी कि…
“उनकी जानिब से गुफ़्तगू न हुई
हम मगर अर्ज़-ए-हाल कर बैठे”
मनजीत शर्मा ‘मीरा’
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