Description
योग::यानि कि..?! जीवन की आवश्यकता है जीवन!!हालाकिं जीवन के लिए हमारी नजर में अनेक आवश्यकताएं हो सकती हैं जिसका जीवन में महत्व होता है लेकिन यह हमारे नजरिया पर निर्भर है।हर व्यक्ति के नजरिया के आधार पर उसका ‘ आवश्यकता तंत्र ‘ होता है। लेखक के नजर में हम अपने लिए बेहतर से बेहतर दशा में जीना चाहते हैं।अपने (देह +आत्मा) की सम्पूर्णता से संतुलन बनाना आवश्यक है।ऐसे में लेखक का विचार है कि योग है अपना – ‘ अवश्यताओं की व्यवस्था या तन्त्र ‘ । हमारा व्यक्तित्व हमारे वर्तमान दशा (देह+आत्मा) में संतुलन या योग से है।ऐसे में लेखक कहता है कि हमें अपने तन्त्र – हार्डवेयर व साफ्टवेयर हेतु – ‘ आवश्यकता व्यवस्था ‘ को स्वीकार कर्तव्यवान रहना है।हमें अपने स्थूल शरीर की अवश्यताओं व सूक्ष्म शरीर की आवश्यकताओं में संतुलन बनाना है। सिर्फ देह या देहों के जीते रहने से काम नहीं चलता वरन देहान्त से पहले देह व अन्य देहों ,जगत, पृथु महि पर जीवन के कारण की आवश्यकताओं के लिए भी जीना आवश्यक है अर्थात देह +आत्मा दोनों के लिए आवश्यकता तन्त्र का संतुलन जीना है । श्रीअर्द्धनारीश्वर स्वरूप के पीछे यही रहस्य है -देह और आत्मा का मिलन से आत्मा का परम् आत्मा से मिलन को जीते हुए आगे अनन्त यात्रा पर निकलना।
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