Description
हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में आँख, कान भींचे पूरी ताकत से दौड़ा चला जा रहा, हम मीलों दूर छोड़ आये है अपनी चिर प्राचीन भारतीय संस्कृति को जहाँ ज्यादातर संयुक्त परिवार हुआ करते थे | आपसी सम्बन्ध मधुर और बंधुत्व भावना से परिपूर्ण होते थे, उदाहरण के तौर पर किसी से आपसी झगडा-झड़प हो भी जाती, तो होली दिवाली पर फिर से समझौता हो जाता था । अब तो जिससे हो गई सो हो गई काहे की होली काहे की दिवाली, ये जो सहनशीलता दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है इसके पीछे कहीं ना कहीं ये अवैज्ञानिक कुतार्किक खोखली आधुनिकता है । मेरी पीढ़ी और उसके बाद के युवा मशीनों में इस कदर विलय हो गए है जैसे चीनी पानी में, मानवों का मशीनीकरण होता जा रहा है | रेलवे स्टेशन हो या बस स्टॉप आप मोबाइल चार्जिंग पॉइंट के पास देखेंगे तो दो-चार लोग चार्जर से बंधे और दो-तीन बंधने के लिए तैयार कतार में खड़े मिल जायेंगे | बात राजनीति की करे तो सारे नेता कुर्सी से बंधे है, और जनता जुमलों में फंसी है ।
अवरोधों, मुश्किलों और कठिनाइयों से ऊपर उठने को महत्व देते हुए, घनघोर अंधेरें से भरे कमरे में हमेशा एक प्रकाश किरण पुंज को खोजने की बात की है | मेरा मानना है कि किसी भटके हुए मुसाफ़िर का सहारा बन सकूं तो कोई बात बने, अक्सर हम परेशान हो जाते है मुश्किलों में फंसकर और एक सच ये भी है, कि हम मजबूत भी मुश्किलों से ही होते है ।
तूफानो में घरौंदा मेरा खो गया ।
जमीं पे आसमां के तले सो गया ।
बारिश से धरा जब जलमग्न हुई,
उड़ा जी भर के परिन्दा हो गया ।
जब स्नातक क दौरान अपने किसी दोस्त को आधुनिक प्रेम- जाल में फंसा देखता हूँ, तो उसको बहुत समझाने का प्रयास भी करता हूँ लेकिन ले देके थोड़ी बाद परिणाम शून्य बटा सन्नाटा रहता है, तो फिर ये शब्द कागज पर उभरते है
बिछड़ना मुझे भी रास नहीं आता ।
ख्वाब भी अब तो खास नहीं आता ।
बिगाड़ा हुलिया,मेरा तेरी आशिकी ने,
भूत समझकर कोई पास नहीं आता ।
इन पंक्तियों के माध्यम से कहना चाहता हूँ बलि हमेशा भेड,बकरे की दी जाती है, शेर की नहीं, अतः अगर हम जागरूक रहेंगे तो कोई भी कैद नहीं कर सकता |
हमेशा घूमते यहाँ वक्त के दरिन्दे है
हिंसा उनकी होगी जो वक्त के चरिंदे है
कोशिशे लाख करे कोई कैद करने की
कैद ना हो सकते हम वक्त के परिंदे है
जो कुछ भी इस दुनिया में देखता हूँ, वो सीधा सीधा कह देता हूँ बिना किसी ताम-झाम के, मेरा काम था कहना सो हो गया, आपका काम जो है वो आप देख लीजिये, इस कृति में कई मुक्तक और शेर ऐसे है जो लिख पहिले गए है और फिर बाद में भोगने पड़े है | संघर्ष, प्रेम और समाज को एक कैनवास पर टेड़ी-मेढ़ी रेखाओ से चित्रित करने का हमारा अबोध प्रयास आपकी आँखों के सामने हाँथो में है, आपकी प्रतिक्रिया का मुझे इंतजार रहेगा …….
लफ्जों के दाँव- पेंच में कौन पड़े
अब थोडा बोलें ज्यादा मौन रहे
— डॉ. हरिकेश “स्पार्क”
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