शिक्षा नाम की एक युवती के माध्यम से लेखक अपने कुछ विचार इस पुस्तक में लाया ही है। इसके साथ ही मानव व मानव समाज में कुछ उन दशाओं का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है जो ज्ञान, शिक्षा के विपरीत ही नजर आए शिक्षित समाज के माध्यम से ही। अशोक बिंदु ठीक कहता है कि वास्तव में हम सब सोच, धारणा, हृदय से शिक्षित हैं ही नहीं।
लेखक का यह कथन कि “सबसे बड़ा भ्रष्टाचार शिक्षा है” एक गहरे सामाजिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह सत्य हो सकता है कि समाज, अभिभावक, विद्यार्थी, शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोग कई बार शिक्षा के मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं। शिक्षा का असली मकसद ज्ञान, चरित्र-निर्माण और समाज के प्रति जिम्मेदारी का विकास करना है, लेकिन अक्सर यह केवल डिग्री, नौकरी या सामाजिक प्रतिष्ठा तक सीमित हो जाती है। लेखक का कहना है कि लोग शिक्षा को अपने मन, दिल, सोच और धारणाओं में नहीं उतार पाते, जिसका अर्थ है कि शिक्षा केवल बाहरी उपलब्धि बनकर रह जाती है, न कि आंतरिक परिवर्तन का साधना यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार, व्यावसायीकरण और नैतिक पतन शामिल हो जाता है। शिक्षक, जो समाज के मार्गदर्शक होने चाहिए, कई बार केवल नौकरी या लाभ के लिए काम करते हैं। अभिभावक और विद्यार्थी भी अक्सर शिक्षा को केवल एक साधन मानते हैं, न कि जीवन को समृद्ध करने का जरिया। इसका समाधान यह हो सकता है कि शिक्षा को केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रखकर, उसे नैतिकता, रचनात्मकता और सामाजिक जिम्मेदारी से जोड़ा जाए। शिक्षा को मन और दिल में उतारने के लिए समाज को मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जो मूल्यों और ज्ञान को प्राथमिकता दे, न कि केवल परिणामों को।





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